कोलोरेक्टल कैंसर का शुरुआती निदान नियमित स्क्रीनिंग पर निर्भर करता है, जो आमतौर पर उन लोगों के लिए 45 की उम्र में शुरू हो जाना चाहिए जिन्हें कोलोरेक्टल कैंसर होने का औसत जोखिम है और इसे 75 की उम्र तक जारी रखा जाना चाहिए। 76 से 85 वर्ष की आयु के वयस्कों के लिए, डॉक्टर व्यक्ति के संपूर्ण स्वास्थ्य और पिछली स्क्रीनिंग के नतीजों को ध्यान में रखते हैं और फिर फैसला लेते हैं कि स्क्रीनिंग जारी रखनी है या नहीं।
कुछ लोगों में स्क्रीनिंग पहले शुरू हो जाती है। उदाहरण के लिए, जिन लोगों का ऐसा फ़र्स्ट-डिग्री रिश्तेदार (माता-पिता, भाई-बहन या बच्चा) है, जिनको 60 वर्ष की आयु से पहले कोलोरेक्टल कैंसर हुआ है, उनको हर 5 वर्ष में 40 वर्ष की उम्र से या रिश्तेदार के निदान की उम्र से 10 वर्ष पहले, जो भी पहले हो, स्क्रीनिंग शुरू कर देनी चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति के पिता को 45 वर्ष की आयु में कोलोरेक्टल कैंसर से प्रभावित होने का पता चला है, तो उसे 35 वर्ष की आयु में स्क्रीनिंग शुरू कर देनी चाहिए।
डॉक्टर कोलोरेक्टल कैंसर की स्क्रीनिंग के लिए कई अलग-अलग टेस्ट करते हैं:
जिन लोगों में कोलोरेक्टल कैंसर के आनुवंशिक कारण हैं, जैसे कि लिंच सिंड्रोम और MUTYH पोलिपोसिस सिंड्रोम, उन्हें अतिरिक्त स्क्रीनिंग की ज़रूरत होती है।
कोलोनोस्कोपी
डॉक्टर अक्सर कोलोनोस्कोपी का उपयोग करके लोगों की जांच करते हैं, जिसमें पूरी बड़ी आंत की जांच की जाती है। कोलोनोस्कोपी के दौरान, कैंसरयुक्त (हानिकारक) दिखाई देने वाले बढ़े हुए हिस्से को स्कोप से गुजारे जा सकने वाले उपकरणों का उपयोग करके हटा दिया जाता है। बढ़े हुए हिस्से को कैंसर की जांच के लिए लेबोरेटरी में भेजा जाता है। नियमित सर्जरी के दौरान, कुछ बड़े हुए हिस्से को हटा दिया जाना चाहिए।
कोलोनोस्कोपी हर 10 सालों में या कोलोरेक्टल कैंसर के ज़्यादा जोखिम वाले लोगों में और भी जल्दी कराई जानी चाहिए।
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स्टूल टेस्ट
फ़ेकल इम्यूनोकेमिकल टेस्ट (FIT) का इस्तेमाल मल में खून का पता लगाने के लिए किया जाता है, भले ही खून खुली आँखों से नहीं दिख रहा हो (जिसे ऑकल्ट ब्लड कहा जाता है)। FIT पुराने केमिकल-आधारित स्टूल टेस्ट से ज़्यादा सटीक है और इसका कोई आहार-संबंधी प्रतिबंध नहीं है। ये जांच हर वर्ष की जाती हैं। हालांकि, कैंसर के अलावा कई बीमारियों से मल में खून का रिसाव हो सकता है और सभी कैंसर में हर समय खून का रिसाव नहीं होता है।
कैंसर से आनुवंशिक सामग्री के लिए मल में देखने के लिए फ़ेकल DNA परीक्षण का उपयोग किया जाता है। आनुवंशिक स्टूल टेस्ट अक्सर खून के लिए, फ़ेकल इम्यूनोकेमिकल टेस्ट (FIT-DNA टेस्ट) के साथ जोड़े जाते हैं और इन्हें हर 3 साल में एक बार किया जाता है। जिन लोगों का FIT-DNA परीक्षण पॉजिटिव है, उन्हें उन्नत कोलोन कैंसर के न मिलने के जोखिम को कम करने के लिए, 6 महीने के अंदर फ़ॉलो-अप कोलोनोस्कोपी करानी चाहिए। जिन लोगों के FIT-DNA टेस्ट के नतीजे पॉजिटिव आते हैं उनमें से करीब 10 से 15% की सामान्य कोलोनोस्कोपी की जाती है। इन लोगों की 1 वर्ष में दोबारा फ़ेकल FIT-DNA जांच की जा सकती है या 3 वर्ष में फिर से कोलोनोस्कोपी की जा सकती है। यदि ये नतीजे निगेटिव हैं, तो लोगों को कोलोन कैंसर होने का औसत जोखिम माना जाता है और वे सामान्य स्क्रीनिंग कार्यक्रम पर लौट सकते हैं।
सिग्मोइडोस्कोपी
सिग्मोइडोस्कोपी बड़ी आंत के निचले हिस्से का एक परीक्षण है। यह टेस्ट सिग्मोइड कोलोन या मलाशय की बढ़ोतरी देखने के लिए तो अच्छा है, लेकिन इससे डॉक्टर कोलोन में आगे बढ़ रहे ट्यूमर नहीं देख पाते।
सिग्मोइडोस्कोपी हर 5 वर्ष में या, यदि अदृश्य रक्त परीक्षण भी किया जाता है, तो हर 10 वर्ष में किया जाना चाहिए।
कंप्यूटेड टोमोग्राफ़ी (CT) कोलोनोग्राफ़ी
CT कोलोनोग्राफ़ी (वर्चुअल कोलोनोस्कोपी) एक विशेष CT स्कैन तकनीक का उपयोग करते हुए कोलोन की दो- और तीन-आयामी इमेज बनाती है। इस तकनीक में, लोगों को कंट्रास्ट एजेंट पीना होता है और मलाशय में डाली गई ट्यूब से गैस के साथ उनके कोलोन को फुलाया जाता है। हाई-रिज़ॉल्यूशन वाली तीन-आयामी इमेज को देखने से कुछ हद तक नियमित कोलोनोस्कोपी के जैसा लगता है, इसलिए यह नाम रखा गया है।
वर्चुअल कोलोनोस्कोपी उन लोगों के लिए विकल्प हो सकता है जो नियमित कोलोनोस्कोपी प्रक्रिया को नहीं करवा सकते हैं या इसे करवाने की इच्छा नहीं रखते हैं, लेकिन यह कम सटीक और रेडियोलॉजिस्ट के कौशल और अनुभव पर बहुत ज़्यादा निर्भर है। वर्चुअल कोलोनोस्कोपी के लिए सेडेशन की ज़रूरत नहीं होती, फिर भी पूरे पेट को तैयार करने की ज़रूरत होती है और कोलोन को गैस से भर देना असुविधाजनक हो सकता है। इसके अतिरिक्त, नियमित कोलोनोस्कोपी के विपरीत, प्रक्रिया के दौरान माइक्रोस्कोप (बायोप्सी की गई) से जांच के लिए घावों को हटाया नहीं जा सकता। अगर वर्चुअल कोलोनोस्कोपी के दौरान पोलिप या कैंसर मिलता है, तो उस पोलिप को निकालने या कैंसर की बायोप्सी करने के लिए नियमित कोलोनोस्कोपी की ज़रूरत होती है। वर्चुअल कोलोनोस्कोपी दिखा सकती है कि कैंसर कोलोन के बाहर लसीका ग्रंथि या लिवर में फैल गया है या नहीं, लेकिन कोलोन में छोटे पोलिप्स का पता लगाने के लिए सही नहीं है।
यह जांच हर 5 वर्ष में की जाती है।
कोलोरेक्टल कैंसर के आनुवंशिक कारणों के लिए स्क्रीनिंग टेस्ट
लिंच सिंड्रोम और MUTYH पोलिपोसिस सिंड्रोम ऐसे विकार हैं जो कुछ जीन में म्यूटेशन की वजह से होते हैं। इन म्यूटेशन की वजह से कोलोरेक्टल कैंसर हो सकता है।
कोलोरेक्टल कैंसर का पता लगाने की स्क्रीनिंग के अलावा, लिंच सिंड्रोम से पीड़ित लोगों को दूसरे कैंसर का पता लगाने के लिए लगातार स्क्रीनिंग की ज़रूरत होती है। इस तरह की स्क्रीनिंग में महिला अंगों की अल्ट्रासोनोग्राफ़ी (योनि के माध्यम से होती है), सक्शन डिवाइस के साथ गर्भाशय (एंडोमेट्रियम) की परत से ली गई कोशिकाओं की जांच के साथ-साथ खून और पेशाब की जांच शामिल हैं।
लिंच सिंड्रोम से पीड़ित लोगों के करीबी रिश्तेदार (माता-पिता, भाई-बहन या बच्चे) जिनकी आनुवंशिक टेस्टिंग नहीं हुई है, उन्हें 20 की उम्र से शुरू करके हर 1 से 2 साल में और फिर 40 की उम्र के बाद हर साल कोलोनोस्कोपी करानी चाहिए। करीबी परिवार के सदस्य जो महिलाएं हैं, उन्हें हर साल एंडोमेट्रियल और ओवेरियन कैंसर के लिए टेस्ट कराना चाहिए।
MUTYH पोलिपोसिस सिंड्रोम से पीड़ित लोगों को 25 से 30 की उम्र से शुरू करते हुए हर 1 से 2 साल में कोलोनोस्कोपी (जिसे सर्विलिएंस कोलोनोस्कोपी कहा जाता है) करानी चाहिए। उनमें पेट और ड्यूडेनम, थायरॉइड, मूत्राशय, अंडाशय और त्वचा के ट्यूमर की भी स्क्रीनिंग की जानी चाहिए।